भोपाल की छोटी झील मे गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए नाव पर गए बालकों और नवयुवकों का हृदय विदारक अंत हुआ है। एक साथ 11 छोटी आयु के लोगों की गणेश विसर्जन के शुभ अवसर पर दुर्घटना में मृत्यु हो जाना शहर व देश के लिए एक बहुत बड़ी त्रासदी है। इन बच्चों के सामने बहुत बड़ा भविष्य था तथा इनके परिवार वालों के सामने इनके लिए एक बड़ा सपना था।शोक संतप्त परिवारों की वेदना को समझते हुए मैं उनके साथ अपनी संवेदना व्यक्त करता हूँ।
इस घटना के पश्चात एक बार फिर हमने ऐसी सभी त्रासदियों के बाद होने वाले सिलसिला वार घटना क्रम को देखा है। सबसे पहले प्रशासन, पुलिस एवं नगर निगम की लापरवाही की बात करते हुए उनके अधिकारियों एवं कर्मचारियों के विरुद्ध सख़्त कार्रवाई की माँग की गई।फिर मुआवज़े की बात आयी तो दुर्भाग्यवश राजनीतिज्ञों द्वारा बोली लगाने का क्रम प्रारंभ हुआ। एक बहुत बड़े नेता ने 25 लाख रुपये की राशि देने की बात कही और अंत में शासन द्वारा 11 लाख रुपये प्रत्येक मृतक के परिवार को देने की घोषणा की गई।परंपरानुसार मजिस्ट्रियल जाँच के आदेश भी दे दिए गए हैं।
घटना में हुई लापरवाही अनेक है और इसके लिए अनेक लोग किसी न किसी रूप में ज़िम्मेदार है।मूर्तियों और ताजियों के विसर्जन के अवसर पर पूर्व में भी दुर्घटनाएँ होती रही हैं परंतु इतनी बड़ी संख्या में एक साथ जनहानि होना चिंतनीय है। यह कहा जा रहा है कि लाइफ़ जैकेट उपलब्ध थी परन्तु फिर भी किसी ने इन्हें पहनने के लिए निर्देश नहीं दिये। नावों में लाइफ़ जैकेट का प्रयोग अपने यहाँ वैसे भी केवल अपवादस्वरूप होता है।मूर्ति विसर्जन के समय शायद ही किसी ने लाइफ़ जैकेट का प्रयोग होते हुए देखा होगा।
एक मूल प्रश्न यह है कि भारत में ऐसा क्या है कि यहाँ पर सभी वर्गों के लोग सुरक्षा के प्रति उदासीन रहते हैं। भारत के बाहर विकसित देशों के साथ साथ अनेक विकासशील देशों में भी सुरक्षा के प्रति बहुत जागरूकता है तथा उनके वातावरण में सभी लोग सुरक्षा के प्रति बहुत सतर्क रहते हैं। हमने प्रतिवर्ष सभी शहरों में वर्षा ऋतु में लोगों को पिकनिक मनाते हुए बाँध तालाब और नदियों में कालकलवित होते हुए देखा है।
मेरी पुलिस सेवा में प्रथम पोस्टिंग ASP इंदौर के रूप में हुई थी। उस समय भी सुरक्षा के प्रति जनजागरूकता का अभियान चलाया गया था तथा लोगों को हेलमेट आदि पहनने की समझाइश दी गई थी। 40वर्षों के बाद भी स्थिति यथावत है। हेलमेट और सीट बेल्ट के प्रति अभी भी स्वयं प्रेरणा से इनका प्रयोग करने की भावना नहीं आयी है।भारत में डेढ़ लाख लोगों की सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु होती है तथा तीन लाख लोग गंभीर रूप से विकलांग हो जाते हैं।नए मोटर व्हीकल एक्ट में जुर्माने की राशि बढ़ाकर यातायात के नियमों का बेहतर पालन करने के लिए प्रयास किया गया है।भारत के चतुर राजनीतिज्ञ जानते हैं कि बढ़ी हुई जुर्माने की राशि का अधिकांश लोग विरोध करेंगे क्योंकि सड़कों पर यातायात की हालत और दुर्घटनाओं से किसी को कोई परेशानी नहीं है। सड़क का प्रयोग करने वाला यह सोचता है कि दुर्घटना किसी और के साथ होगी उसके साथ नही।
हम ग़रीब है इसलिए सड़क पर ठीक से नहीं चलेंगे।हम VIP है इसलिए हम भी नियम से नहीं चलेंगे।कहा गया है कि बढ़ा हुआ जुर्माना ग़रीब भारतीय कैसे दे पाएगा। सड़कों पर अधिकांशतया अमीरों को ही हमने खुले आम नियम तोड़ते हुए देखा है , कम से कम उन पर जुर्माना करिए। नौकरी पेशा ड्राइवरों पर जुर्माना करने के स्थान पर गाड़ी के मालिकों पर जुर्माना करिये जो अपने ड्राइवरों को और तेज़ चलने के लिए निर्देशित करते हैं। ट्रकों और बसों के मालिक चाहते हैं कि उनके ड्राइवर ज़्यादा से ज़्यादा ट्रिप लगायें। ग़रीबी की रेखा के नीचे के लोंगों का जुर्माना बंद कर दीजिए। ऐसे अनेक सुझाव हो सकते हैं।यह भी कहा गया है कि बढ़े हुए जुर्माने से ट्रैफ़िक विभाग और भ्रष्ट हो जाएगा। यदि ऐसा है तो लगभग सभी केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों के कार्यालयों के अधिकार सीमित कर देने चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार वहाँ भी है।
हम घोर अव्यवस्था के आदी हो चुके है।हमारी ट्रेनों के अंदर दरवाज़ों मेंलॉक नहीं होते है जिसकी वजह से अक्सर लोग दुर्घटना या अपराध के कारण ट्रेन से गिरते रहते हैं। हमारी रेल पटरियों पर कोई फ़ेंसिंग नहीं है जिससे हज़ारों लोग प्रति वर्ष मारते रहते हैं।जहाँ दुनिया के अन्य देशों में बसों में भी सीट बेल्ट लगाकर चलते हैं वहीं भारत में जिला स्तर की सड़कों पर क्षमता से दुगनी सवारी लेकर बसें चलती है और सीधी और मुरैना जैसी हृदय विदारक घटनाएं हो जाती है।हमारे मंदिरों और मेलों में जिस प्रकार की भगदड़ होती है वैसी संभवत: विश्व में कहीं नहीं होती।फिर भी हम इन घटनाओं के आदी हो चुके हैं।
टॉलस्टॉय ने कहा था कि हम पूरा विश्व बदल देने का हौसला रखते हैं लेकिन ख़ुद को नहीं बदलना चाहते है। समय आ गया है कि हमें स्वयं अपनी सुरक्षा के प्रति पूरी ज़िम्मेदारी लेनी होगी। सरकार या समाज से यह अपेक्षा रखना अनावश्यक है कि वे आकर हमें सुरक्षित करेंगे। जीवन बहुमूल्य हैं और इसे केवल भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।
लेखक मध्यप्रदेश के पूर्व डीजीपी है